छोटे हाथों में बड़े फैसले

भारतीय संसदीय लोकतंत्र की विडंबना देखिए विश्वासमत पर मनमोहन सरकार अगर बचेगी तो उन बेहद छोटे दलों और कुछ निर्दलियों के समर्थन से, जिन्हें न तो इस परमाणु करार की तकनिकी जटिलताओं का पता है और न ही यह के यह समझौता भारत और अमरीका के रिश्तों की मौजूदा संरचना को कैसे और कहाँ तक बदल सकता है? जुलाई 22 को लोकसभा में सरकर जाएगी या रहेगी, यह तय करने की हैसियत अब न तो सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह और प्रणब मुखर्जी के हाथ में है और न ही लालकृष्ण अडवानी, प्रकाश करात और मायावती के । करार और सरकार दोनों के भविष्य पर अंतिम निर्णय करने की हैसियत अब शिबू सोरेन, चौधरी अजित सिंह, एचडी देवगौड़ा और कुछ हद तक उमर अब्दुल्ला जैसों के हाथों में आकर सिमट गई है। यह अंकगणित का चमत्कार है, जहां मुद्दे और सिद्घांत सब बेमानी हो जाते हैं। सदन की बौद्घिक बहसें बांझ हो जाती हैं और राष्ट्रीयहित बेहद स्थानीय और निजी लाभों में बंद हो जाते हैं। दावे चाहें जो हों और शोरगुल चाहे जितना भी, आज की स्थिति यह है के लोकसभा में करार और सरकर के विरोध में लगभग 265 मत दिख रहे हैं और समर्थन में लगभग 261 मत। वो भी तब जब समाजवादी पार्टी के सभी 39 सांसद अपने नेता मुलायम सिंह के निर्देश पर विश्वासमत के पक्ष में मतदान कर दें। हालांकी इसकी संभावना बेहद कम है। सपा के लगभग पांच से छह सांसदों का झुकाव बसपा की ओर है और उन्हें लोकसभा का अगला चुनाव भी हाथी पर सवार होकर लडऩा है। ऐसे मे फैसला अब उन जद (एस) के 2, राष्ट्रीय लोकदल ke 3, एआईएमआईएम ke 1, जेएमएम के 5, नेशनल कांफ्रेंस के 2 और 2 निर्दलियों के हाथों में है, जिनका रुख अभी तक सार्वजनिक तौर पर ज्ञात नहीं हुआ है। क्यों की अभी तक सत्ता शिविर और इनके बीच शायद समझौते की शर्तें तय नहीं हो पाईं हैं। मनमोहन सिंह के पास अब देने को बहुत कुछ है भी नहीं। केंद्रीय मंत्रिमंडल का आकार अब प्रधानमंत्री की मर्जी पर तय नहीं होता। संसद ने कानून बना कर मंत्रिमंडल के सदस्यों की संख्या को निर्धारित कर दिया है। फिलहाल तो केंद्रीय मंत्रिमंडल में इतनी रिक्तियां नहीं हैं, जिनमें इन सभी भावी समर्थको की महत्वाकंछायें मनमोहन सिंह समायोजित कर सकें यही कुल जमा पंद्रह सांसद यह तय कर के सरकार और करार का क्या होगा?

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