जिम्मेदार बने मीडिया

वर्तमान पत्रकारिता की दिशा व दशा दोनों में व्यापक बदलाव आये हैं। यह बदलाव सकारात्मक है या नकारात्मक, अलग मुद्दा है लेकिन आरुषी हत्याकांड की जैसी रिपोर्टिंग इलेक्ट्रानिक मीडिया कर रहा है, उसने पत्रकारिता के तमाम आदर्शों पर कालिख पोत दी है। यह ठीक है कि खबरिया चैनलों का मुख्य ध्येय अब पत्रकारिता करना नहीं रह गया है, लेकिन ऐसा भी न हो कि वे खबरों के नाम पर वह सब दिखाएं, कि सरकार को उनकी नकेल कसने के लिए कानून बनाना पड़े। वे क्यों अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने पर आमादा हैं? 14 साल की एक बच्ची की हत्या अपने आप में ऐसी जघन्य घटना है, जिसे सुनकर झुरझुरी-सी होने लगती है। ऐसे में जब आप तफ्तीश के नाम पर दुनिया भर की मनगढंत कहानियां दर्शकों को परोसने लगते हैं, तो कई बार आपकी खबर से ज्ञानवर्ध्दन या मनोरंजन होने के बजाय उबकाई आने लगती है।
सबसे बड़ी समस्या यह है कि कोई चैनल या उसका संवाददाता परिश्रम करके घटना की तह तक नहीं पहुंचना चाहता। उनके पास न उसकी काबिलियत है और न ही संवेदनशीलता। सब जानते हैं कि आरुषी हत्याकांड के बारे में किसी के पास कोई सूचना नहीं है। पुलिस चुप है। ऐसे में यदि आप अपनी खोजबीन से किसी नए नतीजे तक नहीं पहुंच पाते, तो बेहतर है कि आप चुप बैठ जाइए। लेकिन टेलीविजन चैनल ऐसा नहीं करेंगे। उन्हें 24 घंटे चटपटी सत्यकथा परोसनी ही है। वे मेहनत नहीं कर सकते। इसलिए तमाम मनगढंत कहानियों और अफवाहों पर आधारित कार्यक्रम सत्यकथा की तर्ज पर दर्शकों को परोसेंगे। बात केवल आरुषी कांड की नहीं है। कोई भी घटना हो, चाहे हत्या की हो या बलात्कार की, वे उनको सत्यकथा की तरह से रीकंस्ट्रक्ट करते हैं। और कभी एनिमेशन के जरिये तो कभी नाटय रूपांतरण के जरिये, वे ऐसे परोसेंगे कि जैसे घटना उन्हीं के सामने घटी हो।
चूंकि ये कथाएं अनुमानों और अफवाहों पर आधारित होती हैं, इसलिए सचाई से उनका कोई वास्ता नहीं होता। ऐसी स्थिति में वे किसी का भी चरित्र हनन कर सकते हैं, किसी को भी कोर्ट से पहले अपराधी ठहरा सकते हैं। उन्होंने एक सूत्र सुन लिया कि खबर को मनोरंजन की तरह परोसने से वह ज्यादा दर्शनीय हो जाती है, तो वे हर खबर को, बिना उसकी संवेदनशीलता में गए नाटक की तरह पेश करने लग जाते हैं। लेकिन उसकी प्रस्तुति इतनी अधकचरी होती है कि वह नाटक के बजाय प्रहसन बन जाती है। दरअसल पिछले पांच सालों में टेलीविजन समाचार अपने पथ से पूरी तरह से भटक चुका है। वे अब हर खबर को नाटक बनाकर पेश करने लगे हैं। इक्का-दुक्का चैनलों को छोड़कर हर चैनल एक-दूसरे की नकल कर रहा है। यदि पूछिए कि आप ऐसा क्यों कर रहे हैं, तो एक ही जवाब मिलेगा- टीआरपी के लिए। और जब सरकार टीआरपी या परोसी जा रही सामग्री को रेगुलेट करने की बात करें, तो सारे चैनल खड्गहस्त हो जाते हैं। आखिर कोई तो हो, जो इस तरह की गैरजिम्मेदार सामग्री पर नजर रखे। खबर और फूहड़ मनोरंजन के बीच कोई तो दीवार हो। पत्रकारिता के नाम पर यदि आप विशेषाधिकर पाने के अधिकारी हैं, तो उसके मूल्यों को अपनाने में ऐसा भय क्यों?

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