'केंद्रीय एजेंसी से पहले सुधार हो'

किरण बेदी, पूर्व महानिदेशक, भारतीय पुलिस अनुसंधान एवं विकास ब्यूरो
चरमपंथ की जो समस्या देश के सामने है उसका हल हमारे पास है। हमारी पुलिस काबिल है लेकिन आज उसकी काबिलियत की कोई बात नहीं कर रहा है। हर कोई उसकी कमजोरियों की बात कर रहा है।इस समस्या का हल उस एक सिपाही के पास है जो गाँव में है, जो शहर में गश्त लगा रहा है। उसके पास सूचना है लेकिन उससे सूचना लेने वाला कोई नहीं है। उस सूचना की कद्र करने वाला कोई नहीं है। उसे इनाम देने वाला कोई नहीं है। उसका सम्मान करने वाला कोई नहीं है। हमने उसे उपेक्षित कर रखा है। इसलिए वह हमें कुछ नहीं देता। जिस दिन हम अपने 90 प्रतिशत सिपाहियों को यह विश्वास दिला देंगे की तुम देश की आतंरिक सुरक्षा के लिए जिम्मेदार हो, तुम हमारे लिए कीमती हो, तुम ईमानदारी से काम करो और जो चाहोगे वह मिलेगा। यकीन मानिए उस दिन देश के अंदर कोई चरमपंथी नहीं बचेगा। उन्हें वह पहले ही पकड़ लेगा। लेकिन देश के अंदर 90 प्रतिशत सिपाहियों को हमने उपेक्षित कर रखा है। वह विभाग के साथ नहीं है। वह अपने विभाग को कोस रहा है। उनके दिल में अपने विभाग के प्रति, नेतृत्व देने वालों के प्रति कोई इज्जत नहीं है। वे गृह मंत्रालय की बातों पर हँसते हैं कि कहते कुछ हैं और करते कुछ और हैं। सिपाहियों की सुनने वाला कोई नहीं है। क्यों देगा वो अपनी जान? जिस दिन हम उन्हें सुनेंगे चरमपंथ नहीं बचेगा। जमीनी स्तर पर सूचनाएँ : जमीनी स्तर की सूचनाएँ हमारे सिपाहियों के पास हैं। नेताओं, पुलिस अधिकारियों के पास ये सूचनाएँ नहीं होतीं। जिस दिन हम उन्हें ताकतवर बनाएँगे, इनकी इज्जत करेंगे उस दिन देश में चरमपंथ नहीं बचेगा। हमें जमीनी स्तर सूचना देने वालों का अनुपात बढ़ाना होगा।
फ़ेडरल या केंद्रीय एजेंसी की जरूरत ऊपरी स्तर पर है, जहाँ गुप्तचर संस्थाओं के साथ मिल कर काम करना होता है। मैं कहना चाहती हूँ कि केंद्रीय एजेंसी का सुझाव प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह का नहीं है।तीन साल पहले पूर्व पुलिस अधिकारी प्रकाशसिंह की एक जनहित याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्रीय एजेंसी की बात की थी और कहा था कि केंद्रीय एजेंसी के बारे में सोच कर बताओ। सुप्रीम कोर्ट के पास इस संबंध में विचार हैं। मीडिया को इस बारे में पता लगाना चाहिए।जब भारतीय पुलिस अनुसंधान एवं विकास ब्यूरो में मैं महानिदेशक थी, तब मैंने लिखकर भेजा था कि केंद्रीय एजेंसी की जरूरत है। इस पर गृह मंत्रालय ने लिखा कि यह इंटर-स्टेट काउंसिल का काम है हम इस पर दखल नहीं दे सकते। इस मसले पर आज सूचना भी ठीक से नहीं मिल रही है। मैंने इन चीजों को फेल होते देखा है। इस मुद्दे पर मैं बहुत नाराज़ हूँ। कोई सच नहीं बोल रहा है। इसलिए मैंने नौकरी छोड़ी।राजनीति : चरमपंथ ऐसे जाने वाला नहीं है। जयपुर की बारी आ गई, अब पता नहीं किसकी बारी है। पार्टियों की बीच की राजनीति केंद्रीय एजेंसी को नहीं आने देती। वैट की बात सब करते हैं लेकिन केंद्रीय एजेंसी की बात कोई नहीं करता जो कि सुरक्षा से जुड़ा हुआ है। जब तक फैसले लेने वाला वर्ग, जिसके पास सारी सुविधाएँ हैं, आम आदमी की तकलीफों को नहीं समझेगा तब तक हमारा शासन-प्रबंधन बदलने वाला नहीं है। पुलिस अधिकारियों को कोई सुनना नहीं चाहता। उसके पास निर्णय लेने की आजादी नहीं है। हर वक्त उसे कोसा जा रहा है कि वह बेईमान है। लेकिन वह बेईमान क्यों है, क्योंकि उसे नेतृत्व देने वाला बेईमान है। बेईमानी की अनदेखी की जा रही है। हमें देश में, गृह मंत्रालय में एक नए नेतृत्व की जरूरत है। तब जाकर यह व्यवस्था बदलेगी। जब तक हम जमीनी स्तर पर हालात को नहीं सुधारेंगे तब तक केंद्रीय एजेंसी से बहुत फायदा होने वाला नहीं है। फिर हमारा इंटरसेप्शन कानून पुराना पड़ चुका है। यह ऑडियो-वीडियो को सुबूत नहीं मानता।हमें पुलिस अधिकारियों पर विश्वास करना होगा। यदि वह किसी आतंकवाद निरोधक कानून के तहत किसी निर्दोष को जेल के अंदर डाल देता है तो उसे बर्ख़ास्त करना होगा। सवाल है कि तीन साल पहले जब केंद्रीय एजेंसी की बात उठी थी तब उस पर कोई बात क्यों नहीं हुई थी?

टिप्पणियाँ